नाम: अली ईब्ने अल हुसैन (अलैहिस्सलाम)
माँ: ग़ज़ाला, शहज़ानान
कुनियत (पेदरी नाम): अबू अल हसन
लक़ब: ज़ैनुल आबेदीन, अस्सज्जाद
विलादत: 38 हिजरी में मदीना में पैदा हुए।
शहादत: 94 या 95 हिजरी में मदीना में ज़हर दिया गया और जन्नतुल बक़ी में अपने चाचा ईमाम हसन (अलैहिस्सलाम) के क़रीब दफन हैं।
उनकी विलादत और बरकतें
इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) के बाद चौथे इमाम उनके फ़रज़न्द इमाम अली ज़ैनुल आबेदीन (अलैहिस्सलाम) थे। उनकी वालिदा बीबी शहर्बानो थीं जो फ़ारस की शहज़ादी थीं, बादशाह यज़्दगर्द दोसरी की बेटी। उन्हें 31 हिजरी में इमाम अली (अलैहिस्सलाम) के दौर ख़िलाफत में जंगी क़ैदी के तौर पर लाया गया था और इमाम अली (अलैहिस्सलाम) ने उन्हें आज़ाद कराया और इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) से उनकी शादी कर दी। इमाम ज़ैनुल आबेदीन इसी निकाह से पैदा हुए। हालांकि, इमाम सज़्ज़ाद (अलैहिस्सलाम) की पैदाइश के दस दिन के अंदर ही उनकी वालिदा का इंतेक़ाल हो गया।
उनका लक़ब ज़ैनुल आबेदीन खुद नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उन्हें दिया था, जिन्होंने फ़रमाया था कि क़यामत के दिन ज़ैनुल आबेदीन के लिए नदा दी जाएगी और मेरा बेटा अली बिन हुसैन (अलैहिस्सलाम) लब्बैक कहेगा। उनका दूसरा लक़ब, सैयद अस्साजिदीन, उनकी नमाज़ों के लिए मोहब्बत की वजह से दिया गया। वो लंबे दौरानी के लिए नमाज़ पढ़ते थे ख़ास तौर पर रातों को और शुक्राने की नमाज़ें बहुत ज़्यादा पढ़ते थे।
इमाम सज़्ज़ाद (अलैहिस्सलाम) ने अपनी ज़िन्दगी के पहले दो साल अपने दादा इमाम अली (अलैहिस्सलाम) की ज़ेर निगरानी गुज़ारे और उनकी वफ़ात के बाद ५० हिजरी में, वो दूसरे इमाम हसन (अलैहिस्सलाम) की ज़ेर निगरानी पले। इमाम सज़्ज़ाद (अलैहिस्सलाम) की शादी बीबी फ़ातिमा (अलैहिस्सलाम) से हुई - जो इमाम हसन (अलैहिस्सलाम) की बेटी थीं। इमाम हसन (अलैहिस्सलाम) ५० हिजरी में शहीद हो गए और इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) की इमामत का आग़ाज़ हुआ जो १० मुहर्रम ६१ हिजरी पर ख़त्म हुआ जहां से इमाम सज़्ज़ाद (अलैहिस्सलाम) की इमामत का आग़ाज़ हुआ।
इमामत की मुद्दत और कर्बला के वाक़ियात
इमाम सज़्ज़ाद (अलैहिस्सलाम) कर्बला के वाक़े के वक़्त तक़रीबन २२ या २३ साल के थे। चूँकि अल्लाह तआला ने अपनी किताब में ज़िक्र किया है कि इस दुनिया में कोई लम्हा भी ऐसा नहीं जब कोई मासूम "इमाम" मौजूद न हो, अल्लाह तआला ने ऐसा इंतज़ाम किया कि इमाम सज़्ज़ाद (अलैहिस्सलाम) इस जंग के दौरान सख्त बीमार हो गए और एक जंगजू की हैसियत से हिस्सा नहीं ले सके। उन्होंने जंग में लड़ने की इजाज़त तलब की लेकिन इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) ने उन्हें बताया कि उनके लिए एक मुख्तलिफ़ किस्म का "जिहाद" मुक़र्रर किया गया था जो इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) की शहादत के बाद शुरू होना था - यानी नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ख़ानवाडे की ख़वातीन और बच्चों को कूफ़ा और दमिश्क के बाज़ारों और अदालतों में ले जाना। इमाम सज़्ज़ाद (अलैहिस्सलाम) को नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के खानदान के साथ जंगी क़ैदी बना लिया गया। उसी वक़्त उन्हें इमामत की ज़िम्मेदारी दी गई और ये उनकी इमामत के सबसे मुश्किल वक़्तों में से एक था। दर हकीक़त, उनके लिए मैदान-ए-जंग में शहीद हो जाना बहुत आसान होता बजाए इसके कि उन्हें जंगी क़ैदी बनाया जाता और उनके और नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के खानदान की ख़वातीन पर तमाम तोहिन और ज़िल्लतें डाल दी जातीं।
इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) की शहादत के बाद, इस्लाम की बका इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अलैहिस्सलाम) पर मुनहसिर थी, और वो भी सिर्फ़ २२ साल की उम्र में। उनके लिए ये एक बहुत मुश्किल काम था कि वो दुनिया को इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) के मिशन के बारे में बताएं और यज़ीद और बनी उमैया के शरारती इरादों को बेनक़ाब करें। उन्हें इस्लाम के पैगाम को ज़िंदा रखना और इसे बनी उमैया के शरारती मंसूबों से बचाना था।
यज़ीद की फ़ौज ने उनके साथ बहुत बुरा सलूक किया, उन्हें भारी ज़ंजीरों में बांध दिया। एक जंगी क़ैदी की हैसियत से, उन्हें जलती धूप में ऊंट की नंगी पीठ पर कर्बला से कूफ़ा और फिर कूफ़ा से शाम (दमिश्क) - तक़रीबन 750 किलोमीटर का फ़ासला तय कराया गया। कभी-कभार, उन्हें जलती रेत पर चलना पड़ता। ये सब नहीं था। नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के खानदान की ख़वातीन और बच्चे भी हथकड़ियों में बांधे गए और ग़ुलामों की तरह सलूक किया गया। इमाम अली (अलैहिस्सलाम) और बीबी फ़ातिमा (सलामुल्लाह अलैहा) की बेटियों के साथ मुजरिमों से भी बदतर सलूक किया गया, उनके हिजाब ले लिए गए। एक मुनादी उनके साथ थी जो उनके बारे में कहती थी कि "ये वो हैं जिन्होंने मुस्लिम हाकिम, यज़ीद की नाफरमानी की।" उन्हें पहले इब्न ज़ियाद की अदालत में और फिर यज़ीद की अदालत में क़ैदियों की हैसियत से पेश किया गया।
इब्ने ज़ियाद और यज़ीद की अदालतों में, इमाम सज़्ज़ाद (अलैहिस्सलाम) ने दिलेराना ख़ुतबे दिए और सुनने वालों के सामने हक़ीक़ी इस्लाम पेश किया और खुद को और अपने साथ आये अफ़राद को नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के खानदान के अफ़राद और अल्लाह (सुब्हानहु व तआला) की तरफ से मुक़र्रर करदा रहनुमाओं के तौर पर मुतआरिफ़ कराया। उनके ख़ुत्बों का सुनने वालों पर ऐसा असर हुआ कि यज़ीद और इब्न ज़ियाद की अदालत में उन्हें क़त्ल करने की कई कोशिशें नाकाम रहीं। बीबी ज़ैनब (सलामुल्लाह अलैहा) और नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के खानदान की दीगर ख़वातीन अगली सफ़ों की मुहाफ़िज़ बन गईं और उनका साथ दिया यज़ीद की अदालत के उन लोगों ने जो अभी भी शर्म रखते थे।
एक मौक़े पर, यज़ीद ने अपने एक मुअलिम से कहा कि वो मस्जिद के मिंबर पर जा कर इमाम अली (अलैहिस्सलाम) और उनके खानदान को गालियां दे। जब मुअलिम ने अपनी तक़रीर ख़त्म की, इमाम सज़्ज़ाद (अलैहिस्सलाम) ने उससे कहा, "शर्म करो, तुम बुरे ख़तीब। तुमने अपनी बातों से अल्लाह को नाराज़ किया है ताकि लोगों को ख़ुश करो।" फिर इमाम (अलैहिस्सलाम) ने यज़ीद से लोगों से बात करने की इजाज़त मांगी। यज़ीद ने इनकार कर दिया। शाम के लोगों ने यज़ीद पर ज़ोर दिया कि वो इमाम को मिंबर पर जाने दे।
मिंबर पर पहुंच कर, इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अलैहिस्सलाम) ने सबसे पहले अल्लाह (सुब्हानहु व तआला) और उसके रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की तारीफ की। उसके बाद इमाम ने एक लंबा और बहुत ताक़तवर ख़ुत्बा दिया जिसमें शामीयों को इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) की अल्लाह (सुब्हानहु व तआला) के नज़दीक अज़ीम मक़ाम के बारे में बताया और यज़ीद और उसके खानदान की बदी को बेनक़ाब किया। ख़ुत्बे का हिस्सा नीचे ख़ुलासा किया गया है:
"ऐ सुनने वालों, अल्लाह ने हमें (अहले बैत) छः चीज़ें दी हैं जो किसी और को नहीं दी हैं। उसने हमें ख़ुसूसी हिकमत, सब्र, वक़ार, तक़रीर की ताक़त, जुर्रत और एहतराम दिया है। उसने हमें अपने नबी के खानदान से मुताल्लिक़ होने का ख़ुसूसी फ़ायदा दिया है। हमसे हमज़ा और जाफ़र का ताल्लुक़ है। हमसे असदुल्लाह (अल्लाह का शेर, इमाम अली अलैहिस्सलाम) का ताल्लुक़ है। हमसे जन्नत के जवानों के सरदार (इमाम हसन अलैहिस्सलाम और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम) का ताल्लुक़ है।"
"जो मुझे जानते हैं, वो जानते हैं। जो नहीं जानते, वो जान लें कि मैं मक्का और मिना का बेटा हूँ। मैं ज़मज़म और सफा का बेटा हूँ। मैं वो हूँ जिसने ग़रीबों को ज़कात दी। मैं वो हूँ जो एह्राम बांधने वालों और हज के मनासिक अंजाम देने वालों में बेहतरीन हैं। मैं वो हूँ जिसे शब-ए-मेराज में अल्लाह के घर से मस्जिद-ए-अक्सा और फिर मेराज तक ले जाया गया। मैं वो हूँ जिसे जिब्राईल ने सिदरतुल मुनतहा तक ले जाया।"
"मैं मुहम्मद मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का बेटा हूँ। मैं अली अलमुरतज़ा (अलैहिस्सलाम) का बेटा हूँ जिसने मुशरिकीन के खिलाफ जंग की जब तक उन्होंने इस्लाम क़ुबूल नहीं किया और नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की मौजूदगी में लड़े जब तक उनकी तलवार टूट नहीं गई और उन्हें ज़ुल्फ़िक़ार दी गई। मैं वो हूँ जिसे इस्लाम में दो बार हिजरत करने का शरफ़ हासिल हुआ। मैं फ़ातिमा (सलामुल्लाह अलैहा) का बेटा हूँ जो दुनिया की बेहतरीन औरत हैं.....।"
ख़ुत्बे का असर इतना ताक़तवर था कि मस्जिद में मौजूद हर शख़्स रोने लगा और यज़ीद को मलामत करने लगा। यज़ीद को ख़ौफ़ हुआ कि अगर इमाम ने अपना ख़ुत्बा जारी रखा तो एक इन्क़लाब और बग़ावत हो जाएगी। साथ ही यज़ीद इमाम को मिंबर से उतार नहीं सकता था। उसने इस लिए एक मुअज़्ज़िन को अज़ान देने का हुक्म दिया, जानते हुए कि ये खुद-ब-खुद इमाम का ख़ुत्बा ख़त्म कर देगा। लेकिन उसने इमाम की जुर्रत और ज़हान्त को कम समझा। इमाम ने अपना ख़ुत्बा रोक दिया लेकिन मिंबर से नहीं उतरे। जब मुअज़्ज़िन ने "अल्लाहु अकबर" कहा तो इमाम ने अल्लाह की अज़मत की गवाही दी। जब मुअज़्ज़िन ने कहा, "अश्हदु अन्ना मुहम्मद रसूलुल्लाह", इमाम ने मुअज़्ज़िन को मज़ीद जाने से रोक दिया। फिर इमाम ने यज़ीद की तरफ़ रुख़ कर के पूछा, "बताओ ऐ यज़ीद, क्या मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) तुम्हारे दादा थे या मेरे? अगर तुम कहो कि वो तुम्हारे दादा थे तो ये खुला झूट होगा और अगर तुम कहो कि वो मेरे दादा थे तो फिर तुमने उनके बेटे को क्यों क़त्ल किया और उनके खानदान को क़ैद किया? तुमने मेरे वालिद को क्यों क़त्ल किया और उनकी औरतों और बच्चों को इस शहर में क़ैदी बना कर क्यों लाया?"
यज़ीद के पास कोई जवाब न था।
इसका असर ये हुआ कि शामी यज़ीद के खिलाफ हो गए। उनमें से हर एक ने अब यज़ीद के जराइम के बारे में जान लिया जो उसने नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) और उनके खानदान के खिलाफ किए थे। उन्होंने उसे मलामत करना शुरू किया और इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अलैहिस्सलाम) और नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के खानदान की ख़वातीन की रिहाई का मुतालिबा किया। यज़ीद को अब ख़ौफ़ हुआ कि अगर उसने तेज़ी से अमल न किया तो उसकी हुकूमत ख़त्म हो जाएगी। इस लिए उसने इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अलैहिस्सलाम) को रहा कर दिया और उन्हें मुकम्मल इज़्ज़त व एहतराम के साथ मदीना वापस जाने दिया।
उनकी ज़िन्दगी मदीना में
यज़ीद को अपने हुकूमत के ख़ौफ़ से इमाम (अलैहिस्सलाम) को रहा करना पड़ा, इस लिए इमाम (अलैहिस्सलाम) मुकम्मल तौर पर उसके शर से महफूज़ नहीं थे यहाँ तक कि मदीना पहुंचने के बाद भी। मदीना पहुंचने के बाद, इमाम (अलैहिस्सलाम) ने लोगों को जमा किया और उन्हें कर्बला की ख़ौफनाक कहानियों के बारे में बताया और उन्हें इतला दी कि उनके वालिद इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) और उनके साथी शहीद हो गए और उनके खानदान के अफ़राद को क़ैद कर के एक शहर से दूसरे शहर ले जाया गया और ग़द्दार के तौर पर पेश किया गया।
इमाम सज़्ज़ाद (अलैहिस्सलाम) ने मदीना पहुंचते ही बाक़ायदा सोगवार इजलास शुरू किए और लोगों को नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के खानदान के सख्त वक़्तों के बारे में आगाह किया। दिन रात, लोग इमाम (अलैहिस्सलाम) के पास आते और ताज़ियत पेश करते और कर्बला के वाक़ियात सुनते। एक बार एक ज़ाएर नमान इमाम (अलैहिस्सलाम) के पास आया और उससे पूछा कि उन्हें सबसे ज़्यादा मुश्किल वक़्त कौन सा था और इमाम (अलैहिस्सलाम) ने तवील अरसा तक रोते रहे और तीन बार कहा "अश्शाम अश्शाम अश्शाम"। एक और ज़ाएर ने उनसे पूछा कि वो कब तक सोगवार रहेंगे और रोएंगे और उन्होंने जवाब दिया कि नबी अय्यूब (अलैहिस्सलाम) के 12 बेटे थे और उनमें से सिर्फ एक खो गया और वो जानते थे कि वो अभी ज़िंदा है लेकिन वो रोते रहे यहाँ तक कि उनकी आंखें सफ़ेद हो गईं और उनकी कमर झुक गई - मैंने अपने १७ खानदान के अफ़राद को अपने इर्द-गिर्द भेड़ों की तरह ज़बह होते देखा और तुम मुझसे पूछते हो कि मैं कब तक सोगवार रहूंगा।
एक और काम जो इमाम सज़्ज़ाद (अलैहिस्सलाम) ने शाम से वापस आने के बाद किया, वो ये था कि उन्होंने मुकम्मल अक़ीदत के साथ नमाज़ें और दुआएं पढ़ना शुरू किया। उनकी अक़ीदत इतनी मजबूत थी और उनके साथियों और ज़ाएरों ने इसे महसूस किया कि उन्होंने उनकी दुआओं को जमा करना शुरू किया जो आज भी सहिफ़ा कामिला के नाम से मौजूद हैं। इसे सहिफ़ा सज्जादिया भी कहा जाता है। इसमें 54 दुआएं, 14 इज़ाफ़ी दुआएं और 15 मुनाजात शामिल हैं। सहिफ़ा के अलावा इमाम (अलैहिस्सलाम) की कई और दुआएं हैं जो मुख्तलिफ़ नामों के तहत मौजूद हैं।
उनकी शहादत
इमाम (अलैहिस्सलाम) ने अपनी ज़िन्दगी बहुत ज़ाती रखी और मदीना के क़रीब एक क़स्बे में रहने को तरजीह दी जहां से वो अल्लाह (सुब्हानहु व तआला) का हक़ीक़ी दीन ख़ामोशी से और किरदार के साथ तबलीग करते। उनके किरदार और तबलीग ने ख़ास तौर पर मदीना और मक्का के आस-पास के लोगों को मुतास्सिर किया। आहिस्ता आहिस्ता उनके दौर के ज़ालिम हुक्मरानों को इमाम (अलैहिस्सलाम) की तबलीग और किरदार से जो ख़तरात दरपेश थे, इसका इदराक होने लगा। उनकी इमामत का दौर ज़ालिम हुक्मरानों से भरा हुआ था जैसे यज़ीद 64 हिजरी तक, मुआविया बिन यज़ीद और मर्वान बिन अल-हकम 65 हिजरी तक, फिर 68 हिजरी से 86 हिजरी तक अब्दुल मलक बिन मर्वान का दौर हुक्मरानी और आख़िर में 86 हिजरी से 96 हिजरी तक वलीद बिन अब्दुल मलक का दौर था। इस बढ़ते हुए ख़तरे के दरमयान, वलीद ने इमाम को ज़हर दे कर क़त्ल करने का फ़ैसला किया और आख़िरकार वो अपने नापाक इरादे में कामयाब हो गया और इमाम सज़्ज़ाद (अलैहिस्सलाम) को मदीना के गवर्नर ने ज़हर दे दिया और 25 मुहर्रम 95 हिजरी (713 इसवी) को शहीद कर दिया।
इमाम अली इब्न हुसैन (अलैहिस्सलाम) ने वाक़िया कर्बला के बाद अपने वालिद पर सालों तक ग़रिया किया। किसी ने इमाम (अलैहिस्सलाम) से पूछा: "ए मेरे आका! आपका ग़म कम नहीं हुआ और आपका ग़रिया खत्म नहीं हुआ?" इमाम अली इब्न हुसैन (अलैहिस्सलाम) ने जवाब दिया: "तुझ पर अफ़सोस हो! याक़ूब (अलैहिस्सलाम) एक नबी थे और उनके बारह बेटे थे। उनके एक बेटे (हज़रत यूसुफ़) को अल्लाह ने उनकी आँखों से पोशीदा रखा, और उनका सर के बाल इन्तेहाई ग़म की वजह से सफ़ेद हो गए, उनकी कमर इस परेशानी की वजह से झुक गई, और उनकी आँखों की बिनाई ज्यादा रोने की वजह से धुंधला गई, और ये सब जबकि उनका बेटा इस दुनिया में ज़िंदा था। जबकि मैंने अपने वालिद, भाई और अपने ख़ानदान के अठारह अफ़राद को ज़मीन पर गिरा हुआ और शहीद होते हुए देखा, फिर मेरा ग़म कैसे कम हो सकता है और मेरे आँसू कैसे रुक सकते हैं?" [हवाला: नफ़सुल महमूम, हिस्सा 14, बाब नंबर 39]