रबीउल अव्वल महीने के आग़ाज़ की दुआ


नए महीने की नमाज़
पहली रात हिजरत का आग़ाज़ क़रार पाती है, जो कि इस्लामी तक़वीम की शुरूआत है। इसी रात रसूल-ए-ख़ुदा (स:अ:व) ने मक्का से मदीना की तरफ़ अपनी हिजरत का आग़ाज़ किया। इस रात कुफ़्फ़ार के ताअक़ुब के बावजूद, नबी-ए-अकरम (स:अ:व) ने ग़ार-ए-सौर में पनाह ली, जबकि हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने नबी (स:अ:व) की जान बचाने के लिए अपनी जान को ख़तरे में डाल कर नबी (स:अ:व) के बिस्तर पर आराम फ़रमाया — कुफ़्फ़ार के क़बीलों की तलवारों की परवाह किए बग़ैर। इस अज़ीम क़ुर्बानी के ज़रिए हज़रत अली (अ) ने अपनी फ़ज़ीलत, वफ़ादारी और जानिसारी का बे-मिसाल मज़ाहिरा किया। इस मौक़े पर क़ुरआन की आयत 2:207 नाज़िल हुई:
"और लोगों में कुछ ऐसे भी हैं जो अल्लाह की रज़ा हासिल करने के लिए अपनी जान बेच देते हैं, और बेशक अल्लाह अपने बंदों पर निहायत मेहरबान है।" - (सूरह अल-बक़रह, आयत 207)
बाज़ उलमा का कहना है कि इस दिन रोज़ा रखना मुस्तहब है, ताके अल्लाह तआला का शुक्र अदा किया जा सके कि उसने नबी-ए-मुकर्रम ﷺ और हज़रत अली (अ) को महफ़ूज़ रखा।
इक़बाल-ए-आमाल :माह-ए-रबीउल अव्वल के आग़ाज़ के लिए "अल-मुन्तख़ब" की मुख़्तसर शुदा किताब "अल-मुख़्तसर मिन अल-मुन्तख़ब" में दर्ज़ ज़ैल दुआएं वारिद हुई हैं, जिन्हें इस महीने के शुरू में पढ़ना मुस्तहब है।
रबीउल अव्वल की मख़सूस तारीख़ें
اللَّهُمَّ لَا إِلَهَ إِلَّا أَنْتَ يَا ذَا الطَّوْلِ وَ الْقُوَّةِ وَ الْحَوْلِ وَ الْعِزَّةِ
ऐ मेरे माबूद! तेरे सिवा कोई मआबूद नहीं। ऐ बख़्शिश और क़ुदरत के मालिक! ऐ इज़्ज़त और जलाल के रब!

سُبْحَانَكَ مَا أَعْظَمَ وَحْدَانِيَّتَكَ وَ أَقْدَمَ صَمَدَانِيَّتَكَ وَ أَوْحَدَ إِلَهِيَّتَكَ وَ أَبْيَنَ رُبُوبِيَّتَكَ وَ أَظْهَرَ جَلَالَكَ وَ أَشْرَفَ بَهَاءَ آلَائِكَ وَ أَبْهَى كَمَالَ صَنَائِعِكَ [كرم بها صنائعك‌]
पाक है तू! कितना अज़ीम है तेरा यक़्ता होना! कितना अज़ली है तेरा बेनियाज़ी का वस्फ़! कितना यक़्ता है तेरा इलाह होना! कितना वाज़ेह है तेरा रब होना! कितना नुमायां है तेरा जलाल!

وَ أَعْظَمَكَ فِي كِبْرِيَائِكَ وَ أَقْدَمَكَ فِي سُلْطَانِكَ وَ أَنْوَرَكَ فِي أَرْضِكَ وَ سَمَائِكَ
कितना शरीफ़ है तेरी नेमतों का जाह व जलाल! कितना हसीन है तेरी मख़लूक़ात की तकमील! तेरी अज़मत में तेरा वक़ार, तेरी बादशाही में तेरा दवाम, ज़मीं व आसमान में तेरी ज़िया और रौशनी!,

وَ أَقْدَمَ مُلْكَكَ وَ أَدْوَمَ عِزِّكَ وَ أَكْرَمَ عَفْوَكَ وَ أَوْسَعَ حِلْمَكَ وَ أَغْمَضَ عِلْمَكَ وَ أَنْفَذَ قُدْرَتَكَ وَ أَحْوَطَ قُرْبَكَ
तेरी सल्तनत हमेशा बाक़ी, तेरी क़ुदरत हमेशा ग़ालिब, तेरा मआफ़ करना सरापा करम, तेरा हिल्म बेइंतहा, तेरा इल्म हमा-गीर, तेरी क़ुदरत मोअस्सिर, और तेरा क़ुर्ब सब को घेरे रहने वाला है।

أَسْأَلُكَ بِنُورِكَ الْقَدِيمِ وَ أَسْمَائِكَ الَّتِي كَوَّنْتَ بِهَا كُلَّ شَيْ‌ءٍ
मैं तुझ से तेरे अज़ली नूर का वास्ता मांगता हूँ। और तुझ से उन नामों के वास्ते से दुआ करता हूँ जिन से सब चीज़ें वजूद में आयीं,

أَنْ تُصَلِّيَ عَلَى مُحَمَّدٍ وَ [عَلَى‌] آلِ مُحَمَّدٍ كَمَا صَلَّيْتَ وَ بَارَكْتَ وَ رَحِمْتَ وَ تَرَحَّمْتَ عَلَى إِبْرَاهِيمَ وَ عَلَى آلِ إِبْرَاهِيمَ إِنَّكَ حَمِيدٌ مَجِيدٌ
कि तू मुहम्मद(स:अ:व)और उनकी आल (अलैहिमुस्सलाम) पर अपनी रहमतें नाज़िल फ़रमा, जैसे तू ने इब्राहीम (अ) और उनकी आल पर अपनी बरकतें, रहमतें और नवाज़िशें फ़रमाईं। बेशक तू लाइक़-ए-हम्द व अज़मत है।

وَ أَنْ تَأْخُذَ بِنَاصِيَتِي إِلَى مُوَافَقَتِكَ وَ تَنْظُرَ إِلَيَّ بِرَأْفَتِكَ وَ رَحْمَتِكَ‌
وَ تَرْزُقَنِي الْحَجَّ إِلَى بَيْتِكَ الْحَرَامِ
ऐ मआबूद! मुझे थाम ले और अपनी रज़ा की तरफ़ रहनुमाई फ़रमा। अपनी मेहरबानी और करम की नज़र से मेरी तरफ़ देख। मुझे अपने मुक़द्दस घर की ज़ियारत नसीब फ़रमा।

وَ أَنْ تَجْمَعَ بَيْنَ رُوحِي وَ أَرْوَاحِ أَنْبِيَائِكَ وَ رُسُلِكَ
मेरी रूह को अपने अंबिया और रसूलों (अलैहिमुस्सलाम) की अरवाह से मिला दे।

وَ تُوصِلَ الْمِنَّةَ بِالْمِنَّةِ وَ الْمَزِيدَ بِالْمَزِيدِ وَ الْخَيْرَ بِالْبَرَكَاتِ وَ الْإِحْسَانَ بِالْإِحْسَانِ كَمَا تَفَرَّدْتَ بِخَلْقِ مَا صَنَعْتَ وَ عَلَى مَا ابْتَدَعْتَ وَ حَكَمْتَ وَ رَحِمْتَ
मेरे ऊपर एक के बाद एक करम फ़रमा, इज़ाफ़ा के बाद इज़ाफ़ा अता फ़रमा, भलाईयाँ, नवाज़िशें, रहमतें उसी तरह बरसाता रह जिस तरह तू ने अपनी मख़लूक़ात को तन्हा अपनी हिकमत और रहमत से पैदा किया।

فَأَنْتَ الَّذِي لَا تُنَازَعُ فِي الْمَقْدُورِ وَ أَنْتَ مَالِكُ الْعِزِّ وَ النُّورِ وَسِعْتَ كُلَّ شَيْ‌ءٍ رَحْمَةً وَ عِلْماً
और तू ही है जिसके फ़ैसले में कोई रुकावट नहीं।
तू ही बर्ज़गी और नूर का मालिक है।
तेरी रहमत और तेरा इल्म हर चीज़ को घेरे हुए है।

وَ أَنْتَ الْقَائِمُ الدَّائِمُ الْمُهَيْمِنُ الْقَدِيرُ
और तू ही क़ायिम है, हमेशा रहने वाला है, निगहबान है, तक़दीर का मालिक है।

إِلَهِي لَمْ أَزَلْ سَائِلًا مِسْكِيناً فَقِيراً إِلَيْكَ فَاجْعَلْ جَمِيعَ أمري [أُمُورِي‌] مَوْصُولًا بِثِقَةِ الِاعْتِمَادِ عَلَيْكَ وَ حُسْنِ الرُّجُوعِ إِلَيْكَ وَ الرِّضَا بِقَدَرِكَ وَ الْيَقِينِ بِكَ وَ التَّفْوِيضِ إِلَيْكَ‌
ऐ मेरे परवरदिगार! मैं हमेशा तेरे दर का मोहताज, ग़रीब और सवालि रहा हूँ।
तू मेरे सब कामों को अपने ऊपर भरोसा, तेरे फ़ैसले पर ख़ुशनूदी, यक़ीन और तवक्कुल के साथ जोड़ दे।

سُبْحانَكَ لا عِلْمَ لَنا إِلَّا ما عَلَّمْتَنا إِنَّكَ أَنْتَ الْعَلِيمُ الْحَكِيمُ‌
“पाक है तू! हमें कोई इल्म नहीं मगर वो जो तू ने सिखाया। बेशक तू ही कामिल इल्म और हिकमत वाला है।”1

سُبْحانَهُ بَلْ لَهُ ما فِي السَّماواتِ وَ الْأَرْضِ كُلٌّ لَهُ قانِتُونَ‌
“पाक है वो! बल्कि जो कुछ ज़मीन व आसमान में है सब उसी का है, और सब उसकी इबादत करते हैं।”2

سُبْحانَكَ فَقِنا عَذابَ النَّارِ سُبْحانَكَ تُبْتُ إِلَيْكَ وَ أَنَا أَوَّلُ الْمُؤْمِنِينَ‌
“पाक है तू! हमें आग के अज़ाब से निजात दे।”3
“पाक है तू! मैं तेरी तरफ़ तौबा करता हूँ और सब से पहले ईमान लाने वाला हूँ।”4

سُبْحانَكَ أَنْتَ وَلِيُّنا مِنْ دُونِهِمْ‌ سُبْحانَ اللَّهِ رَبِّ الْعالَمِينَ‌
“वो कहेंगे: पाक है तू! हमारा ताल्लुक तुझ से है बहैसियत हाफ़िज़ के, न कि उन से…”5
“पाक है ख़ुदा! सारे जहानों का परवरदिगार है।”6

سُبْحانَ اللَّهِ وَ ما أَنَا مِنَ الْمُشْرِكِينَ‌ سُبْحانَ اللَّهِ عَمَّا يُشْرِكُونَ‌
“पाक है ख़ुदा! और मैं हरगिज़ ख़ुदा को किसी के साथ शरीक नहीं बनाता।”7 “.....अल्लाह उन सब बातों से बुलंद है जो वो शरीक ठहराते हैं।”8

سُبْحانَ الَّذِي أَسْرى‌ بِعَبْدِهِ لَيْلًا مِنَ الْمَسْجِدِ الْحَرامِ إِلَى الْمَسْجِدِ الْأَقْصَى الَّذِي بارَكْنا حَوْلَهُ لِنُرِيَهُ مِنْ آياتِنا إِنَّهُ هُوَ السَّمِيعُ الْبَصِيرُ
“पाक है वो अल्लाह जिसने अपने बंदे को रात के वक़्त मस्जिद-ए-हराम से मस्जिद-ए-अक्सा तक सैर कराई, जिसके इर्द-गिर्द को हमने बरकत दी ताकि हम उसे अपनी निशानियाँ दिखाएँ। बेशक वही सब कुछ सुनने और देखने वाला है।”9

سُبْحَانَ‌ اللَّهِ حِينَ تُمْسُونَ وَ حِينَ تُصْبِحُونَ وَ لَهُ الْحَمْدُ فِي السَّماواتِ وَ الْأَرْضِ وَ عَشِيًّا وَ حِينَ تُظْهِرُونَ يُخْرِجُ الْحَيَّ مِنَ الْمَيِّتِ وَ يُخْرِجُ الْمَيِّتَ مِنَ الْحَيِّ وَ يُحْيِ الْأَرْضَ بَعْدَ مَوْتِها وَ كَذلِكَ تُخْرَجُونَ‌
“तो शाम को और सुबह को अल्लाह की तस्बीह करो। आसमान व ज़मीन में उसी की हम्द है, शाम के वक़्त और दिन ढलने के वक़्त भी। वही ज़िन्दा को मुर्दा से निकालता है और मुर्दा को ज़िन्दा से निकालता है। वही ज़मीन को मुर्दा होने के बाद ज़िन्दा करता है। तुम भी उसी तरह क़ब्रों से निकाले जाओगे।”10

سُبْحانَهُ وَ تَعالى‌ عَمَّا يُشْرِكُونَ‌ سُبْحانَهُ وَ تَعالى‌ عَمَّا يَقُولُونَ عُلُوًّا كَبِيراً سُبْحانَ رَبِّنا إِنْ كانَ وَعْدُ رَبِّنا لَمَفْعُولًا
“पाक है वो! वो उन सब बातों से बुलंद है जो वो शरीक करते हैं।”11
“पाक है वो! वो उन सब के बयान से बुलंद और अज़ीम है।”12
वो कहेंगे: पाक है हमारा रब! यक़ीनन हमारे रब का वादा पूरा हुआ।”13

سُبْحَانَ‌ الَّذِي بِيَدِهِ مَلَكُوتُ كُلِّ شَيْ‌ءٍ وَ إِلَيْهِ تُرْجَعُونَ‌
“…पाक है वो जिसके हाथ में हर चीज़ की बादशाही है और सब उसी की तरफ़ पलटाए जाएँगे।”14

سُبْحانَهُ بَلْ عِبادٌ مُكْرَمُونَ‌ سُبْحانَهُ هُوَ اللَّهُ الْواحِدُ الْقَهَّارُ
“…पाक है वो! वो सब उसके इज़्ज़त वाले बंदे हैं।”15 “…पाक है वो! वही अल्लाह है, यक़्ता है, सब पर ग़ालिब है।”16

سُبْحانَ رَبِّنا إِنَّا كُنَّا ظالِمِينَ‌
“वो कहेंगे: पाक है हमारा रब! बेशक हम ही ज़ालिम थे।”17

سُبْحانَ رَبِّكَ رَبِّ الْعِزَّةِ عَمَّا يَصِفُونَ وَ سَلامٌ عَلَى الْمُرْسَلِينَ وَ الْحَمْدُ لِلَّهِ رَبِّ الْعالَمِينَ‌
“पाक है तेरे रब की ज़ात जो इज़्ज़त और क़ुदरत का मालिक है, वो इन सब बातों से पाक है जो वो गढ़ते हैं। रसूलों पर सलामती हो। और सब तारीफ़ ख़ुदा ही के लिए है, जो जहानों का रब है। “18

اللَّهُمَّ صَلِّ عَلَى مُحَمَّدٍ وَ آلِ مُحَمَّدٍ وَ عَرِّفْنَا بَرَكَةَ هَذَا الشَّهْرِ وَ يُمْنَهُ وَ ارْزُقْنَا خَيْرَهُ وَ اصْرِفْ عَنَّا شَرَّهُ
"ऐ माबूद! मुहम्मद(स:अ:व)और उनकी आल (अ) पर अपनी बरकतें नाज़िल फ़रमा।"
इस माह की बरकतें और इस की नेक फ़ाल मुझे दिखा।
ऐ ख़ुदा! हमें इसकी बेपनाह भलाइयाँ अता फ़रमा और हमें हर बुराई से महफ़ूज़ रख।

وَ اجْعَلْنَا فِيهِ مِنَ الْفَائِزِينَ بِرَحْمَتِكَ يَا أَرْحَمَ الرَّاحِمِينَ.
और हमें उन लोगों में शामिल फ़रमा जो इस में नजात पाने वाले हैं।
बेशक तू ही रहमत वाला, सब से ज़्यादा मेहरबान है।

1 कुर'आन अल-करीम : सूरह बक़रा 2:32.
2 कुर'आन अल-करीम : सूरह बक़रा 2:116.
3 कुर'आन अल-करीम : सूरह आले इमरान 3:191.
4 कुर'आन अल-करीम : सूरह अराफ़ 7:143.
5 कुर'आन अल-करीम : सूरह सबा 34:41.
6 कुर'आन अल-करीम : सूरह नमल 27:8.
7 कुर'आन अल-करीम : सूरह युसूफ 12:108.
8 कुर'आन अल-करीम : सूरह अल'तूर 52:43.
9 कुर'आन अल-करीम : सूरह इसरा 17:1.
10 कुर'आन अल-करीम : सूरह रूम 30:17-19.
11 कुर'आन अल-करीम : सूरह ज़ूमर 39:67.
12 कुर'आन अल-करीम : सूरह इसरा 17:43.
13 कुर'आन अल-करीम : सूरह इसरा 17:108.
14 कुर'आन अल-करीम : सूरह यासीन 36:83.
15 कुर'आन अल-करीम : सूरह अम्बिया 21:26.
16 कुर'आन अल-करीम : सूरह ज़ूमर 39:4.
17 कुर'आन अल-करीम : सूरह ज़ूमर अल'क़लम 68:29.
18 कुर'आन अल-करीम : सूरह ज़ूमर अस'सफ़्फ़ात 37:180-182.




28 सफ़र से 8 रबीउल अव्वल तक का दौर, शदीद ग़म का मरहला है।
हमारा सोग़ का दौर 1 मुहर्रमुल हराम से 8 रबीउल अव्वल तक जारी रहता है। इसमें इब्तिदाई दस दिन शदीद ग़म के दिन कहे जाते हैं जिन्हें हम अकीदत और एहतिराम से मनाते हैं।
लेकिन आख़िरी मरहला — यानी 28 सफ़र से 8 रबीउल अव्वल — भी उतना ही शदीद ग़म का दौर है जो अहले बैत अलैहिमुस्सलाम पर गुज़रने वाले मज़ालिम की शिद्दत को ज़ाहिर करता है, मगर अफ़सोस कि हम में से बहुत से लोग इन दिनों को उतनी शिद्दत के साथ नहीं मनाते जितनी कि ज़रूरी है।
1. रसूलुल्लाह(स:अ:व)की शहादत 28 सफ़र को हुई, जिसके साथ ही अहले बैत (अ) पर ज़ुल्म व सितम की बुनियाद रखी गई।
2. उसी वक़्त फ़ौरन "सकीफ़ा" का क़ियाम अमल में लाया गया।
3. फिर वही के घर पर हमला किया गया। सैयदा फ़ातिमा ज़हरा (स) को ज़ख़्मी किया गया और मौला अली (अ) को बांध कर घसीटा गया।
4. मोहसिन (अ) — वो अज़ीम शहज़ादा जो अभी शिकम-ए-मादर में थे — को शहीद कर दिया गया।
5. फ़दक, जो कि सैयदा ज़हरा (स) की मिल्कियत थी, छीन लिया गया।
हमें इन अय्याम को भी उसी शिद्दत-ए-ग़म के साथ मनाना चाहिए जैसे मुहर्रम के पहले अशरे को मनाते हैं, क्योंकि इन्हीं अय्याम में कर्बला की बुनियाद रखी गई थी...