इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) के तीन लक़ब हैं: सादिक़, फ़ाज़िल और ताहिर।
आपके वालिद इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ.स.) अपने बेटे की विलादत से बहुत ख़ुश और मस्रूर हुए। आपकी वालिदा उम्मे फरवा, मुहम्मद बिन अबी बक्र की पोती थीं जो इमाम अली (अ.स.) के साथियों में से थे। इमाम अली (अ.स.) अक़्सर फ़रमाते थे: मुहम्मद (बिन अबी बक्र) मेरा रूहानी और अख़्लाक़ी फ़र्ज़ंद है। मुहम्मद बिन अबी बक्र की वालिदा अस्मा बिन्त उमैस एक नेक और परहेज़गार ख़ातून थीं। वो हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स.अ.) की ख़िदमत पर हमेशा फ़ख़्र करती थीं। जंग-ए-मूता में अपने शौहर जाफ़र बिन अबी तालिब की शहादत के बाद उन्होंने अबू बक्र से निकाह किया, और उनकी वफ़ात के बाद इमाम अली (अ.स.) से निकाह किया।
इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) ने अपनी वालिदा के बारे में फ़रमाया: मेरी माँ परहेज़गार, मोमिना और वफ़ादार ख़वातीन में से थीं। जब आपके दादा इमाम ज़ैनुल आबिदीन (अ.स.) शहीद हुए तो आपकी उम्र 15 बरस थी और जब आपके वालिद इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ.स.) शहीद हुए तो आप 34 बरस के थे।
सियासी पस-ए-मंज़र
इमाम हुसैन (अ.स.) की शहादत के बाद हुकूमत-ए-बनी उमय्या हिल कर रह गयी और लोग उनसे मुतनफ़्फ़िर हो गये। यही ख़ला बाद में बनी अब्बास की हुकूमत के क़याम का बाइस बना। इन दो ताक़तों के दरमियान फ़ासले ने अहले बैत (अ.स.) के मकटब को फैलाने का मौक़ा दिया। इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) ने एक अज़ीम इल्मी तहरीक के ज़रिये इस्लाम की तालीमात को इस तरह आम किया कि वो दुनिया भर के लोगों तक पहुँचें।
इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) की ख़ुसूसियात
इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) की उम्तियाज़ी ख़ुसूसियात यह थीं कि हम सब जानते हैं इंसान का ज़ाहिर उसके बातिन की अक़्स होती है और हर शख़्स अपने किरदार से पहचाना जाता है।
बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जो अपने किरदार को छुपा सकें और अपने अंदरूनी ख़यालात व जज़्बात को ज़ाहिर न होने दें। इंसान के दिल में जो कुछ होता है वह ऐसे ही ज़ाहिर हो जाता है जैसे बिजली का बल्ब स्विच दबाने से रोशन हो जाता है।
इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) की पूरी ज़िन्दगी, दीगर आइमा (अ.स.) की तरह, हक़ीकी इस्लाम का रोशन सबक़ थी। आप ख़ुद इस्लामी अख़लाक़, आदाब और तर्ज़-ए-अमल का बेहतरीन नमूना और अमली मिसाल समझे जाते थे।
दुनिया की तमाम क़ौमों और क़बीलों में आपको ऐसा बाप और बेटा एक साथ नहीं मिलेगा जो ख़यालात, अफ़कार, किरदार और तर्ज़-ए-अमल में एक-दूसरे से इस क़दर मशाबह हों। लेकिन रसूल-ए-इस्लाम (स.अ.व.अ.) का घराना और उनके औसिया सब एक ही रास्ते पर चलने वाले थे। इन सब ने एक ही मक़सद और एक ही फ़िक्र के साथ अपने इलाही फ़राइज़ अंजाम दिए और इनकी गुफ़्तार, किरदार और अख़लाक़ी रवैय्ये में कोई इख़्तिलाफ़ न था।
इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) की अख़लाक़ी क़द्रें और फ़ज़ीलत
इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) की अख़लाक़ी क़द्रों और फ़ज़ीलत के बारे में यह बात काफ़ी है कि उनके चार हज़ार शागिर्दों में से किसी एक ने भी उनके अख़लाक़ व किरदार पर एतराज़ नहीं किया और न ही उसमें कोई कमज़ोरी पाई। आप मुसलमानों के लिए अमली नमूना थे, चाहे वह खाने-पीने का मामला हो, आराम व सुकून का, चलने-फिरने, गुफ़्तगू करने या दूसरों के साथ मुअमलात करने का। आपका बर्ताव अपने दोस्तों के साथ भी वैसा ही होता था जैसा अपने बच्चों के साथ।
आपकी ज़िन्दगी
छठे इमाम के दौर-ए-इमामत में हालात ज़्यादा साज़गार और बेहतर थे कि आप दीन की तालीमात (धार्मिक शिक्षाओं) को फैलाएँ। इसकी एक वजह इस्लामी इलाक़ों में बग़ावतें थीं, ख़ास तौर पर बनी उमय्या के ख़िलाफ़ "मुसव्वदा" की तहरीक और ख़ूनरेज़ जंगें जिन्होंने आख़िरकार उनके ज़वाल (पतन) और ख़ात्मे को यक़ीनी बना दिया। इसके अलावा पाँचवें इमाम (इमाम मुहम्मद बाक़िर अ.स.) ने अपने बीस साल के दौर-ए-इमामत में हक़ीक़ी इस्लामी तालीमात और अहले बैत (अ.स.) के उलूम को आम कर के एक ज़रख़ेज़ ज़मीन तैयार की थी, जिसका फ़ायदा इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) ने उठाया।
इमाम ने इन मौक़ों से फ़ायदा उठाकर दीन के उलूम को फैलाया और अपने दौर के आख़िर तक यह सिलसिला जारी रखा, जो बनी उमय्या के इख़्तिताम (समाप्ति) और बनी अब्बास के आग़ाज़ (शुरुआत) के साथ था। आपने मुख़्तलिफ़ उलूम के बड़े-बड़े उलमा को तालीम दी, जिनमें ज़रारा, मुहम्मद बिन मुस्लिम, मोमिन त़क़ी, हिशाम बिन हकम, अबान बिन तग़लिब, हिशाम बिन सालिम, हुरैज़, हिशाम कलबी नस्साबह और कीमियादान जाबिर बिन हय्यान शामिल हैं। यहाँ तक कि बड़े अहले सुन्नत उलमा जैसे सफ़यान स़ौरी, इमाम अबू हनीफ़ा, क़ाज़ी सक़ूनी, क़ाज़ी अबुल बख़्तरी वग़ैरह को भी आप से क़सब-ए-फ़ैज़ का शराफ शरफ़ हासिल हुआ। कहा जाता है कि आपकी दरसगाहों से चार हज़ार मुहद्दिस और आलिम फ़ारिग़ुलतहसील (स्नातक) हुए। पाँचवें और छठे इमाम से जुड़ी अहादीस की तादाद मज़मूई तौर पर रसूलुल्लाह (स:अ:व)और बाक़ी दस आइमा से ज़्यादा है।
ज़िन्दगी के आख़िरी हिस्से में इमाम पर अब्बासी ख़लीफ़ा मंसूर ने सख़्त पाबंदियाँ आयद कर दीं। उसने रसूल-ए-ख़ुदा ﷺ की औलाद में से कई शिया अफ़राद को ऐसे ज़ुल्म और बेरहम क़त्ल-ओ-ग़ारत का निशाना बनाया कि उसके ये अफ़आल बनी उमय्या के ज़ुल्म और ग़फ़लत से भी बढ़ गये।
उसके हुक्म पर लोगों को गिरोहों की सूरत में गिरफ़्तार किया गया; कुछ को गहरे और अंधेरे क़ैदख़ानों में डाल दिया गया और वहाँ इस क़दर अज़ीयत दी गयी कि वह दम तोड़ गये, कुछ के सर क़लम कर दिये गये, कुछ को ज़िन्दा दफ़्न कर दिया गया, और कुछ को इमारतों की दीवारों की बुनियाद में या दीवारों के दरमियान रखकर उन पर दीवारें चुन दी गयीं।
उमय्यद ख़लीफ़ा हिशाम ने हुक्म दिया कि छठे इमाम को गिरफ़्तार करके दमिश्क लाया जाए। बाद में अब्बासी ख़लीफ़ा सफ़्फ़ाह ने भी इमाम को गिरफ़्तार कर के इराक़ लाया। आख़िरकार मंसूर ने दोबारा इमाम को गिरफ़्तार करके सामर्रा बुलाया, जहाँ उन्हें अपनी निगरानी में रखा और हर तरह से सख़्ती व बेअदबी से पेश आया। कई बार उसने इमाम को क़त्ल करने का भी इरादा किया। आख़िरकार इमाम को मदीना वापस जाने की इजाज़त दी गयी, जहाँ आपने अपनी बाक़ी ज़िन्दगी गुप्त हालात में गुज़ारी, यहाँ तक कि मंसूर की साज़िश के ज़रिये आपको ज़हर देकर शहीद कर दिया गया।
जब इमाम (अ.स.) की शहादत की ख़बर मंसूर तक पहुँची तो उसने मदीना के गवर्नर को ख़त लिखा कि वह इमाम के घर जाए और ताज़ियत (संवेदना) के बहाने अहल-ए-ख़ाना से मुलाक़ात करे। फिर इमाम की वसीयत और अहदनामा माँगे और उसे पढ़े। जिसे भी इमाम ने अपना जानशीन और वारिस नामज़द किया हो उसे फ़ौरन क़त्ल कर दिया जाए। ज़ाहिर है कि मंसूर का मक़सद मसअला-ए-इमामत को हमेशा के लिए ख़त्म करना और शिया उम्मींदों को तोड़ देना था। लेकिन जब मदीना के गवर्नर ने हुक्म की तामील में इमाम की वसीयत पढ़ी तो मालूम हुआ कि इमाम ने अपनी वसीयत के निफ़ाज़ के लिए एक शख़्स नहीं बल्कि चार अफ़राद को मुक़र्रर किया है: ख़लीफ़ा ख़ुद, मदीना का गवर्नर, इमाम का बड़ा बेटा अब्दुल्लाह अफ़तह और छोटा बेटा इमाम मूसा काज़िम (अ.स.)। इस तरह मंसूर की साज़िश नाकाम हो गयी।
अपने वालिद, "आदि से अंत तक इल्म को बाँटने वाले" इमाम मुहम्मद बिन अली अल-बाक़िर (अ.स.) की परवरिश में पले-बढ़े होने के कारण, छठे इमाम को यह शरफ़ हासिल हुआ कि वह अपने वालिद के ज़रिये सीधे इलाही ज्ञान के कभी न ख़त्म होने वाले चश्मे से फ़ैज़याब हुए।
शैख़ अब्बास अल-क़ुम्मी (र.अ.) की मशहूर तस्नीफ़ मुन्तहा अल-आमाल की रिवायत के मुताबिक़, इमाम सादिक़ (अ.स.) के ज़ेरे-तरबियत मदीना में मुख़्तलिफ़ मुस्लिम मक़ातिब-ए-फ़िक्र से ताल्लुक़ रखने वाले चार हज़ार से कम नहीं उलमा तालीम हासिल कर रहे थे। आज हमारे हाथों में जो कुछ मौज़ूद है, वह शायद उस इल्म का दसवां हिस्सा भी नहीं जो आपने अपने आसपास के लोगों तक पहुँचाया!
इमाम (अ.स.) के आख़िरी कलिमात
इमाम सादिक़ (अ.स.) की शहादत के बाद, मैं (अबू बसीर) उनके घर ताज़ियत के लिए गया ताकि उनकी ज़ौजा हमैदा को परसा दे सकूँ। जब उन्होंने मुझे देखा तो रोने लगीं और मैं भी रो पड़ा। फिर उन्होंने कहा: "अबू बसीर! अगर तुम इमाम सादिक़ (अ.स.) की ज़िन्दगी के आख़िरी लम्हों में यहाँ मौजूद होते तो एक ग़ैर-मामूली मंज़र देखते।"
मैंने पूछा: "वह क्या था?"
उन्होंने जवाब दिया: "यह इमाम की ज़िन्दगी के आख़िरी लम्हे थे जब उन्होंने अपनी मुबारक आँखें खोलीं और फ़रमाया: मेरे तमाम अहले ख़ानदान और रिश्तेदारों को अभी मेरे पास जमा कर दो!"
चुनाँचे हमने सबको जमा किया यहाँ तक कि कोई बाक़ी न रहा। इमाम ने उन सबकी तरफ़ देखा और हालाँकि आप कभी होश में आते और कभी ग़श खा जाते, एक मौक़े पर आपने अहले ख़ानदान की तरफ़ देखते हुए फ़रमाया:
"हमारी शफ़ाअत हरगिज़ उन लोगों तक नहीं पहुँचेगी जो अपनी नमाज़ को हल्का समझते हैं।"
(बिहारुल अनवार, जिल्द 6, स. 154 और जिल्द 4, स. 297, रिवायत: अबू बसीर)
इमाम (अ.स.) का यह फ़रमान उन लोगों के लिए नहीं था जो नमाज़ बिल्कुल नहीं पढ़ते, क्योंकि वह तो एक अलग दर्जा रखते हैं। बल्कि आपके यह अल्फ़ाज़ ख़ास तौर पर अपने शियाओं के लिए थे जो नमाज़ को अहमियत नहीं देते। आपने अपने आख़िरी कलिमात में बहुत तौक़ीद के साथ फ़रमाया कि शफ़ाअत उन तक नहीं पहुँचेगी जो अपने आप को पैरोक़ार तो कहते हैं लेकिन नमाज़ की तरफ़ तवज्जो नहीं देते और उसे मामूली समझते हैं।
نعزی الامة الاسلامیه و شیعة اهل البیت (ع) بذکری استشهاد الامام جعفر بن محمدالصادق علیه السلام
صباح الخير
Another Short Ziarat-3
السلام عليك يا إمام الورى
Assalamo A’Layka Yaa Emaamal Waraa.
Peace Be On You, O Imam Of The World!
السلام عليك أيها العروة الوثقى
Assalaamo A’Layka Ayyohal Urwatul Wusqaa..
Peace Be On You O Secure And Lasting Link Of Allah!
السلام عليك يا حبل الله المتين
Assalaamo A’Layka Yaa Hablallaahil Mateene
Peace Be On You, O Strong Rope Of Allah!
السلام عليك يانوره المبين
Assalaamo A’Layka Yaa Noorahul Mobeene
Peace Be On You, O The Bright Light Of Allah!
السلام عليك أيها الصادق
Assalaamo A’Layka Ayyohas Saadeqo
Peace Be On You, O The Truthful
جعفر بن محمد خازن العلم الداعي
Ja’Fer Ubno Muhammadin Khazenul Ilmiddaae’E..
Ja’Far Son Of Mohammad, Treasurer Of Allah’S Knowledge,
إلى الله بالحق
Elallaahe Bilhaqqe
O True Inviter Of People Towards Allah!
اللهم كما جعلته معدن كلامك ووحيك وخازن علمك
Allahumma Kamaa Jaa’Ltahoo Ma’Dena Kalaameka Wa Wahyeka Wa Khazena I’Lmeka
O Allah! In The Same Way As You Have Made Him The Mine Of Your Words And Of Your Messages And The Treasurer Of Your Knowledge,
ولسان توحيد ووالي أمرك
Wa Lesaana Tawheedeka Wa Waliyya Amreka
And Give Him The Language Of Your Oneness, The Ownership Of Your Realm
ومستحفظ دينك ، فصلي عليه أفضل
Wa Mustahfeza Deeneka Fasalle Alaihe Afzala
And The Protectorship Of Your Religion, Send The Choicest Of Blessings On Him-
ماصليت على أحد من أوصيائك
Maa Sallayta A’La Ahadim Min Awseyaaeka
The Same Blessings Bestowed By You On Your Regents And Successors.
وحججك إنك حميد مجيد
Wa Hojajeka Innaka Hamidum Majid…
Surely, You Are Worthy Of Praise And Your Are Revered!
Within the recommended rites on Fridays, Shaykh al-Tusi, in his book of Misbah al-Mutahajjid, has mentioned the following from Imam Hasan Askari (peace be upon him):