महत्त्वपूर्ण- बुनियादी
फ़िक़्ह / क़ानून

'शरीअत और उस के ज़राए ' इस्लाम: अकीदा, अमल और तारीख़ से लिया गया - सैय्यद मुहम्मद रिज़वी

मौलाना सादिक़ हसन के लेक्चर्स पर बनाया गया नोट्स: www.Panjtan.org :-
फ़िक़्ह का मतलब अल्लाह के अहकाम की पैरवी करना है। इस्लाम के मुताबिक़, इंसानों की तख़लीक़ का मक़सद अल्लाह की मर्ज़ी के ताबे होना है, यानी इस दुनिया में अल्लाह के अहकाम के मुताबिक़ ज़िंदगी गुज़ारना। इस्लाम यह तालीम देता है कि हम दरअसल अगले जहान (आख़िरत) के लिए पैदा किए गए हैं, न कि इस आरज़ी दुनिया के लिए। इस दुनिया की ज़िंदगी तमाम इंसानों के लिए आज़माइश का दौर है ताकि यह मालूम हो सके कि कौन अल्लाह के अहकाम की पैरवी करता है और कौन नहीं। अल्लाह के अहकाम की पैरवी के लिए, इल्म हासिल करना और अल्लाह के अहकाम को समझना ज़रूरी है (यानी फ़िक़्ह)।

फ़िक़्ह के दो ज़राए हैं: फ़िक़्ह के इल्म के दो अहम ज़राए हैं: क़ुरआन और हदीस। जबकि क़ुरआन मजीद एक किताब की शक्ल में दस्तयाब है, हदीस का अदब मुख़्तलिफ़ औक़ात में लिखी गई मुख़्तलिफ़ किताबों में मुंतशिर है। अ) क़ुरआन मजीद। ब) सुन्नत। क़ुरआन मजीद अल्लाह का कलाम है जो हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वआलिहि वसल्लम) पर नाज़िल हुआ और सुन्नत का मतलब हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वआलिहि वसल्लम) और आइम्मा ए अतहार (अलैहिमुस्सलाम) के अक़वाल, आमाल और ख़ामोश मंज़ूरी है। क़ुरआन की 6000 से ज़्यादा आयात हैं और तक़रीबन 70,000 हदीसें (सुन्नत) हैं। जहां तक वाजिबात का ताल्लुक है, क़ुरआन मजीद और सुन्नत दोनों का मुसावी दर्जा है। अगर कोई वाजिब सिर्फ़ सुन्नत में ज़िक्र हो तो उसका वही वज़्न है जो सिर्फ़ क़ुरआन में ज़िक्र किए गए वाजिब का है। एक मुज्तहिद वह आलिम है जिसने क़ुरआन और हदीस का मुकम्मल इल्म और समझ हासिल कर ली हो। मरजअ वह मुज्तहिद है जो तमाम मुज्तहिदीन में सबसे ज़्यादा इल्म वाला (सबसे आला दर्जा वाला) होता है।

इस्लाम हर मुसलमान से तवक़्क़ो करता है कि वह या तो मुज्तहिद बने या सबसे आला दर्जा वाले मुज्तहिद की तक़लीद करे (यानी मरजअ की पैरवी करे)। लिहाज़ा तक़लीद उन तमाम मुसलमानों के लिए वाजिब है जो मुज्तहिद नहीं बन सकते। एक मुज्तहिद अहकाम (इस्लामी क़वानीन) की किताब लिखता है, जिसे उसके पैरोक़ार (मुकल्लिदीन) मुख़्तलिफ़ मसाएल पर उसके फतवे जानने के लिए इस्तेमाल करते हैं।

हदीस के मुताबिक़, अगर हम फ़िक़्ह का इल्म हासिल न करें तो हम सबसे बड़े काफ़िर या सबसे बड़े मुनाफ़िक़ (अराबी) के तौर पर मर सकते हैं। इस्लाम हमें याद दिलाता है कि हमारी हक़ीक़ी ज़िंदगी आख़िरत की ज़िंदगी है, जो हमेशा के लिए है। इस ज़मीन पर हमारी मौजूदह ज़िंदगी मुख़्तसर, आरज़ी और अगली दायमी (हक़ीक़ी) ज़िंदगी के लिए आज़माइश का दौर है। यह ज़िंदगी हमारे आख़री मंज़िल यानी जन्नत या जहन्नम की तरफ़ एक अबूरी मरहला है। यह मौजूदह ज़िंदगी एक आज़माइशी मुद्दत है ताकि यह जाँच सके कि कौन अल्लाह के अहकाम की पैरवी करता है और कौन नहीं।.

हज़रत अली (अलैहि सलाम) की हदीस के मुताबिक़, जो शख़्स फ़िक़्ह का इल्म हासिल किए बगैर इस्लाम की पैरवी करता है, वह सही रास्ते पर है लेकिन ग़लत सिम्त में जा रहा है!
इस्लाम में फ़िक़्ह (शरीअत) का इल्म न होना इस्लाम के उसूलों की सही पैरवी न करने का बहाना नहीं है!

किसी अच्छे अमल के बारे में फ़िक़्ह का इल्म न होना कभी-कभार अल्लाह से सवाब की बजाए सज़ा (अज़ाब) का बाइस बन सकता है, चाहे इब्तिदा में नियत अच्छी हो। इसकी कई मिसालें हैं।

एक बीवी की कहानी, जिसने अपने शौहर की मौत के बाद उसकी तमाम जायदाद और दौलत ग़रीबों में बांट दी, लेकिन वह जहन्नम में गई क्योंकि उसे फ़िक़्ह के क़वानीन का इल्म नहीं था कि शौहर की मौत के बाद उसकी जायदाद और दौलत को इस्लामी क़वानीन के मुताबिक़ वर्सा में तक़सीम करना चाहिए। फ़िक़्ह के मुताबिक़, बीवी को शौहर की जायदाद और दौलत का सिर्फ़ एक छोटा सा हिस्सा मिलता है। शौहर की मौत के बाद, वह उसकी दौलत को उसके बच्चों पर खर्च नहीं कर सकती जब तक कि शौहर ने अपनी ज़िंदगी में या वसीयत के ज़रिए उसे अपना वली (सरपरस्त) न बनाया हो। मग़रिब (पश्चिम)में रहने वाले लोगों के लिए वसीयत लिखना बहुत अहम है।

उसूल-ए-इस्लाम उसूल ए ईमान
1. तौहीद
(अल्लाह की वहदानियत)
4. अदल
(अल्लाह का इंसाफ)
2. रिसालत
(नबूवत)
5. इमामत
(12 इमामों पर ईमान)
3. क़यामत
(यौम-ए-क़यामत)
 
एक मुसलमान वह है जो तीनों उसूल-ए-इस्लाम पर ईमान रखता हो और एक शिया मुसलमान या मोमिन वह है जो पांचों उसूल-ए-दीन पर ईमान रखता हो।.

काफ़िर वह शख़्स है जो दर्ज़-ए-ज़ैल चार चीज़ों में से किसी एक का भी इनकार करे या उस पर ईमान न रखे:-

i)तौहीद
ii)रिसालत
iii)क़यामत
iv)ज़रूरत-ए-दीन (इस्लाम के मुरव्वजा [स्थापित] उसूल).

ज़रूरियात-ए-दीन वह चीज़ें हैं जिन पर तमाम मुसलमान इस्लाम के मुरव्वजा (स्थापित) अहकाम के तौर पर मुत्तफ़िक़ हैं, जैसे कि नमाज़, रोज़ा, हज, हिजाब, ख़त्म-ए-नबुव्वत वग़ैरा। मिसाल के तौर पर, क़ादियानी काफ़िर हैं क्योंकि वह हमारे नबी करीम की ख़त्म-ए-नबुव्वत पर ईमान नहीं रखते, जबकि तमाम मुसलमान इस बात पर मुत्तफ़िक़ हैं कि हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वआलिहि वसल्लम) अल्लाह के आख़िरी नबी हैं।

फ़ुरू-ए-दीन एक शख़्स पर वाजिब हैं, जिसमें दर्ज़-ए-ज़ैल चार शराइत हों:

i)ज़िंदा हो
ii)बालीग़ हो
iii)अकलमंद हो
iv)सक्षम (इख़्तियार रखता) हो

अहल-ए-सुन्नत और अहल-ए-तशीयु (शिया) इस्लाम में फ़िक़्ह के इख़्तिलाफ़ात हैं। मिसाल के तौर पर: सुन्नी फ़िक़्ह में खरगोश और केकड़े हलाल हैं लेकिन शिया फ़िक़्ह में हराम हैं।

फ़िक़्ह की पैरवी की शराइत (शराइत-ए-तकलीफ़-ए-शरई)
फ़िक़्ह पर अमल करना सिर्फ़ उस वक़्त वाजिब है जब एक शख़्स चार शराइत पूरी करता हो:

i)ज़िंदा हो
ii)बालीग़ हो
iii)आक़िल हो
iv)इख़्तियार हो
)

अगर किसी की जान ख़तरे में हो तो तमाम हराम चीज़ें हलाल हो जाती हैं या इसके बरअक्स, सिवाए दो सूरतों के:

i) जिहाद वाजिब है चाहे जान ख़तरे में क्यों न हो
ii) किसी दूसरे मुसलमान को क़त्ल करना हराम है चाहे अपनी जान ख़तरे में हो

इस्लाम और फ़िक़्ह का इल्म किसी शख़्स के लिए फ़िक़्ह की पैरवी करने के लिए ज़रूरी शराइत नहीं हैं।

अहकाम दो क़िस्म के होते हैं:-

.^. हुक्म-ए-तकलीफ़ी (जो सवाब या अज़ाब से मुतअल्लिक़ होता है)

.^. हुक्म-ए-वज़ई (जो दूसरे ख़ुसूसियात जैसे सही या ग़लत से मुतअल्लिक़ होता है)

फ़िक़्ह के नुक्ता नज़र से, एक लड़की 9 इस्लामी साल की उम्र में बालीग़ हो जाती है, चाहे उसकी माहवारी शुरू न हुई हो। एक लड़का 15 इस्लामी साल की उम्र में या उस से पहले बालीग़ हो जाता है अगर उसका इन्ज़ाल (एहतलाम) शुरू हो जाए या नाफ़ के नीचे बाल ज़ाहिर हो जाएं।.

अगर नाबालीग़ बच्चा नमाज़, रोज़ा वग़ैरह अदा करता है तो उसे इन आमाल का सवाब मिलेगा, बशर्ते वह इस उम्र का हो कि अच्छे और बुरे या सही और ग़लत में फ़र्क़ कर सके (अरबी में मुमैयाज़ कहलाता है)

वली (सरपरस्त) पर वाजिब है कि वह नाबालीग़ बच्चों को बाज़ बड़े हराम कामों से रोके, जिनमें शराब, सुअर का गोश्त, हराम गोश्त, म्यूज़िक, और चोरी शामिल हैं।

जब कोई ग़ैर-शिया शिया बन जाता है तो उसे उस मुद्दत के दौरान दी गई ज़कात और फ़ित्रा दोबारा अदा करना होता है जब वह ग़ैर-शिया था। क्यों? क्यूँकि शिया फ़िक़्ह में ज़कात और फ़ित्रा को शिया फ़ुक़रा को जाना चाहिए। ताहम, उसे पहले की गई नमाज़, रोज़ा, हज वग़ैरह को दोहराने की ज़रूरत नहीं है।

जब कोई काफ़िर मुसलमान बन जाता है, तो उसे कुफ़्र के दौर में छोड़ी गई नमाज़ या रोज़ा की क़ज़ा नहीं करनी होती। लेकिन उसे मुसलमान बनने के दिन अपनी पिछले साल की बचत/अशिया पर ख़ुम्स और ज़कात अदा करना होगी।

यौम-ए-क़यामत पर, एक काफ़िर को इस्लाम ना क़ुबूल करने की सज़ा मिलेगी, और उसके साथ ही कुफ़्र के दौर में नमाज़, रोज़ा वग़ैरह ना करने की भी सज़ा मिलेगी।

तारीख़-ए-फ़िक़्ह
फ़िक़्ह के इल्म को समझने के लिए कुछ तारीखी इल्म ज़रूरी है कि हमारे आइम्मा (अलैहिमुस्सलाम) ने फ़िक़्ह के इल्म को कैसे फैलाया और फ़िक़्ह के बाज़ मसाएल की फ़लसफ़ा/मन्तक़ को समझने के लिए।

फ़िक़्ह के इल्म का खुलम खुला फैलाव पांचवे इमाम, जो बाक़िरुल उलूम के लक़ब से भी जाने जाते हैं, ने शुरू किया। हमारे पांचवे और छठे इमाम को "सादिक़ैन" के लक़ब से जाना जाता है।

कर्बला की शहादत के हक़ीक़ी फ़ायदे पांचवे इमाम के दौर में ज़ाहिर होना शुरू हुए, जब लोगों ने खुल कर हक़ीक़ी इस्लाम और इसके क़वानीन के बारे में सवालात करने शुरू किए।

पांचवे और छठे इमाम ने पहला हौज़ा इल्मिया (इस्लामी यूनिवर्सिटी) क़ायम किया। उन्होंने तक़लीद और ख़ुम्स के क़ायम किये गए निज़ाम के बारे में भी इल्म दिया।

तमाम मुसलमानों (बशमूल वहाबियों) के मुताबिक़, दुनिया में सबसे बेहतरीन ख़ानदान की नस्ल हमारे नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वआलिहि वसल्लम) के ख़ानदान की है, जो बीबी फ़ातिमा (सलाम अल्लाह अलैहा) और इमाम अली (अलैहिस्सलाम) के ज़रिए है।

हमारे पांचवे इमाम को यह मुनफ़रिद इज़्ज़त हासिल है कि उनके वालिद की तरफ़ से और मां की तरफ़ से दोनों तरफ़ से मासूम दादा हैं। पांचवे इमाम के वालिद इमाम ज़ैनुल आबिदीन (अलैहिस्सलाम) थे, जो इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) के बेटे थे। पांचवे इमाम की वालिदा फ़ातिमा, इमाम हसन (अलैहिस्सलाम) की बेटी थीं।

इलज़ाम लगाने का क़ानून (क़ानून-ए-इल्ज़ाम)

इज्तेहाद और तक़लीद के मौज़ू को समझने के लिए पहले फ़िक़्ह में क़ानून-ए-इल्ज़ाम को समझना ज़रूरी है।

क़ानून-ए-इल्ज़ाम मुख़्तलिफ़ मुज्तहिदीन के फ़तवों के इख़्तिलाफ़ात की वजह से पैदा होने वाले मसाइल को हल करने में मदद करता है।
क़ानून-ए-इल्ज़ाम शिया फ़िक़्ह और सुन्नी फ़िक़्ह के माबैन मुतज़ाद क़वानीन की वजह से पैदा होने वाले मसाइल को भी हल करता है।

इन क़वानीन की वज़ाहत सबसे पहले हमारे पांचवें इमाम (अलैहिस्सलाम) ने की थी।

क़ानून-ए-इल्ज़ाम के मुताबिक़, अगर कोई चीज़ शिया फ़िक़्ह में बातिल है, लेकिन वही चीज़ सुन्नी फ़िक़्ह के मुताबिक़ सही है, तो एक शिया उस से फ़ायदा उठा सकता है। इसकी बेहतरीन वज़ाहत मिसालों से होती है:

मिसाल 1: तलाक़ के क़वानीन। शिया और सुन्नी फ़िक़्ह में तलाक़ के क़वानीन में बड़े फ़र्क़ हैं। शिया फ़िक़्ह तलाक़ के क़वानीन में बहुत सख्त है (तलाक़ का सिग़ा अरबी में पढ़ना ज़रूरी है, 2 गवाहों का होना ज़रूरी है और तलाक़ के वक़्त औरत को हैज़ से पाक होना चाहिए)। सुन्नी फ़िक़्ह में, तलाक़ के लफ़्ज़ को तीन बार कहना ही काफ़ी है और दीगर शराइत ज़रूरी नहीं हैं। अगर कोई सुन्नी अपने फ़िक़्ह के क़वायद के मुताबिक़ अपनी बीवी को तलाक़ देता है, तो (क़ानून-ए-इल्ज़ाम के मुताबिक़) शिया फ़िक़्ह इस तलाक़ को दुरुस्त तस्लीम करता है और एक शिया ऐसे तलाक़ याफ़्ता औरत से शादी कर सकता है।

मिसाल 2:विरासत के क़वानीन। क़ुरआन के मुताबिक़, जब शौहर का इंतिक़ाल हो जाता है, तो उसकी बीवी को उसकी जायदाद का 25% हिस्सा मिलता है अगर उसकी औलाद ना हो, या 12.5% अगर उसकी औलाद हो। जायदाद की दो क़िस्में हो सकती हैं: मन्क़ूला (कपड़े, मकान की इमारत, नक़दी वग़ैरह) या ग़ैर मन्क़ूला (ज़मीन की जायदाद, ज़रई ज़मीन वग़ैरह)। शिया फ़िक़्ह में बीवी को सिर्फ़ मन्क़ूला जायदाद में हिस्सा मिलता है। सुन्नी फ़िक़्ह में बीवी को मन्क़ूला और ग़ैर मन्क़ूला दोनों जायदादों में हिस्सा मिलता है। अगर कोई शिया बीवी अपने सुन्नी शौहर की ग़ैर मन्क़ूला जायदाद में से हिस्सा हासिल करती है, तो वह उसके लिए हलाल है हालाँकि ये उसके अपने फ़िक़्ह में ग़लत है।

मिसाल 3:जमाअत की नमाज़। शिया फ़िक़्ह में इमाम-ए-जमाअत को शिया इसना अशरी होना चाहिए, उसके साथ-साथ आदिल होने की दीगर शराइत भी पूरी होनी चाहिए। लेकिन अगर कोई सुन्नी इमाम-ए-जमाअत अपने सुन्नी फ़िक़्ह के मुताबिक़ नमाज़ पढ़ा रहा है, तो एक शिया ऐसे सुन्नी इमाम के पीछे जमाअत की नमाज़ पढ़ सकता है (उसे जमाअत की नीयत करनी चाहिए और सूरह खुद भी पढ़नी चाहिए)।

क़ानून-ए-इल्ज़ाम का इतला दो या ज़्यादा शिया मुज्तहिदीन के फ़िक़्ही फ़तवों के इख़्तिलाफ़ात पर भी होता है। मिसालें हैं चाँद की रुएत के क़वानीन, अहले किताब की तहारत वग़ैरह के फ़तवों में इख़्तिलाफ़ात।

एहतियात-ए-वाजिब: अगरचे एक मुज्तहिद अपनी सारी ज़िंदगी फ़िक़्ह का इल्म हासिल करने में सर्फ़ करता है, लेकिन कोई मुज्तहिद 100% हदीस को समझने के क़ाबिल नहीं होता। इस लिए हमेशा कुछ मसाइल (मसाएल) होते हैं जिन पर वो वाज़ेह फ़तवा नहीं दे सकता। ऐसे मसाइल के लिए, वो एक इस्तेलाह इस्तेमाल करता है जिसे एहतियात-ए-वाजिब कहा जाता है, जिसका मतलब है कि वो अपने पैरोक़ारों को उस मख़सूस मसले के लिए अगले सबसे आला दर्जा वाले मरजअ की तरफ़ रुजू करने की इजाज़त देता है।

तक़लीद के बारे में आयतुल्लाह सीस्तानी का हुक्म:

अगर एक बालीग़ शख़्स ने किसी मुज्तहिद की तक़लीद की है, जो अब फ़ौत हो चुका है (मसलन आयतुल्लाह ख़ूई या आयतुल्लाह ख़ुमैनी), और अगर वो शख़्स अब आयतुल्लाह सीस्तानी की तक़लीद करना चाहता है, तो उस शख़्स पर वाजिब है कि वो इस फ़ौत शुदा मुज्तहिद के मसाइल की पैरवी जारी रखे जब तक वो इस बात का यक़ीन ना कर ले कि आयतुल्लाह सीस्तानी का मौजूदा इल्मी हालात उसके फ़ौत शुदा मुज्तहिद के इल्म से ज़्यादा नहीं है। अगर वो शख़्स इस बात के बारे में यक़ीन नहीं रखता कि अब किस का इल्म ज़्यादा है, तो भी उसे अपने फ़ौत शुदा मुज्तहिद के मसाइल की पैरवी जारी रखनी चाहिए अगर इस फ़ौत शुदा मुज्तहिद का इल्म उस वक़्त आयतुल्लाह सीस्तानी के इल्म से ज़्यादा था।

इस तरह आयतुल्लाह ख़ूई और आयतुल्लाह ख़ुमैनी के तमाम पैरोक़ार, अब आयतुल्लाह सीस्तानी के इस फ़तवे के ज़रीए, अपने फ़ौत शुदा मरजअ के मसाइल की पैरवी जारी रखेंगे जब तक कि मज़कूरा शराइत मौजूद हैं। सिर्फ़ नए मसाइल में (जिन का उनके फ़ौत शुदा मरजअ ने एहाता नहीं किया), वो आयतुल्लाह सीस्तानी के फ़तवे की पैरवी कर सकते हैं।

इन ऊपर लिखे फ़तवों की वजह से आयतुल्लाह सीस्तानीकी सिर्फ़ दो क़िस्म के लोग मुकम्मल तक़लीद शुरू कर सकते हैं

(a) एक शख़्स, जिसने पहले कभी किसी मरजअ की तक़लीद नहीं की हो,
(b) वो बच्चे जो 1985 या इस के बाद पैदा हुए हैं (क्योंकि ये बच्चे दो अहम मरजअ यानी ख़ूई और ख़ुमैनी की वफ़ात के बाद बालीग़ हुए; ख़ूई 1992 में और ख़ुमैनी 1989 में वफ़ात पा गए).

किसी मुज्तहिद के ज़रीए जारी इज्तेहाद:

एक मुज्तहिद, चाहे वो मरजअ बन चुका हो, मजीद मुतालिआ और तहक़ीक़ करता रहता है और मुख़्तलिफ़ मसाइल में इज्तेहाद करता है। वो पहले से जारी शुदा फ़तवे के बारे में अपना नज़रिया भी देख सकता है और तब्दील कर सकता है। इस तरह एक मुज्तहिद अपने फ़तवे को तब्दील कर सकता है और उसी मसले पर नया फ़तवा जारी कर सकता है।

आयतुल्लाह सीस्तानी ने तक़रीबन 10 साल क़ब्ल अपने अहकाम (इस्लामी क़वानीन या तौज़ीहुल मसाइल) की पहली किताब शाया की थी। उन्होंने 2002 में अहकाम की एक नज़रसानी शुदा किताब शाया की है, जिस में उन्होंने अपने कुछ पिछले फ़तवों में तब्दीलियाँ की हैं।

शरीअत में अहकाम की 5 क़िस्में हैं:

1. वाजिबवह मज़हबी फ़राएज़ जिनकी अदायगी पर सवाब मिलता है और जिन्हें तर्क करने पर सज़ा दी जाती है, वाजिब कहलाते हैं।

2. हराम : वह आमाल जिनका इर्तिकाब गुनाह और सज़ा का बाइस बनता है और जिनसे इज्तिनाब करना बाइस-ए-सवाब है, हराम कहलाते हैं।

3. मुस्तहब या सुन्नत: वह आमाल जिनकी अदायगी पर सवाब मिलता है लेकिन उनका तर्क करना सज़ा का बाइस नहीं बनता, सुन्नत कहलाते हैं।.

4. मक़रूह; वह आमाल जिनसे इज्तिनाब करने पर सवाब मिलता है, लेकिन उनका इर्तिकाब गुनाह नहीं होता, मक़रूह कहलाते हैं।

5. मुबाह : वह आमाल जिन्हें शरीअत ने जाइज़ क़रार दिया है, लेकिन उनके करने या न करने पर कोई सवाब या सज़ा नहीं होती, मुबाह कहलाते हैं।

एक मुसलमान को हुक्म (3) और (4) को किसी उज्र के बिना नज़रअंदाज़ करने की आज़ादी है। लेकिन वह वाजिब या हराम के साथ छेड़छाड़ नहीं कर सकता।

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